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    स्वस्थ भारत का सपना अधूरा, इलाज बना आम आदमी की कमर तोड़ने वाला खर्च; सवालों के घेरे में हेल्थ सर्विसेज



    नई दिल्ली 
    इनपुट:सोशल मीडिया 

    नई दिल्ली:---देश में आज भी पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। यही वजह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है। उन्हें बेहतर इलाज के लिए भटकना पड़ता है। देश में अस्पतालों और चिकित्सकों की उपलब्धता जनसंख्या घनत्व के हिसाब से बहुत कम है। सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सुविधाओं, आधारभूत संरचना, चिकित्सकों, दवाइयों, कुशल और प्रशिक्षित नर्सिंग स्टाफ, कमरे और दूसरी सुविधाओं की कमी है। इन्हीं अभावों के कारण देश में निजी स्वास्थ्य क्षेत्र को विस्तार करने का मौका मिल गया, जिसका गरीब लोगों से कोई वास्ता नहीं। जबकि स्वास्थ्य सेवा किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति का एक महत्त्वपूर्ण मापदंड है, क्योंकि बिना स्वस्थ समाज के किसी भी देश का आर्थिक, औद्योगिक और सांस्कृतिक विकास संभव नहीं है।

    सस्ती और उच्च गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाओं तक आम लोगों की पहुंच नहीं
    भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश में स्वास्थ्य सेवाओं का क्षेत्र लगातार सुधार और विस्तार का केंद्र रहा है। हालांकि, अभी भी हमें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन इनके समाधान के लिए सरकार काम कर रही है। अब भी स्वास्थ्य क्षेत्र में स्थिति दयनीय बनी हुई है। यही वजह है कि हर साल करोड़ों भारतीय महंगे होते इलाज के कारण आर्थिक रूप से बर्बादी के कगार पर पहुंच जाते हैं। एक रपट के मुताबिक अस्पतालों के भारी-भरकम बिल भरने की वजह से भारत में हर साल करीब छह करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। ऐसे लोग इलाज के लिए कर्ज लेते हैं। इसका प्रमुख कारण सस्ती और उच्च गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाओं तक आम लोगों की पहुंच नहीं होना है।

    *असली भारत गांव में बसता है, मगर गांव के लोगों की सेहत की देखभाल करने वाले चिकित्सा केंद्र आज भी बदतर ही हैं:*

    ग्रामीण क्षेत्रों में चलने वाले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में चिकित्सा विशेषज्ञों की काफी कमी देखी जाती है। शहर और गांव के बीच एक ऐसी खाई बन गई है कि इसके नतीजे भविष्य में काफी भयावह हो सकते हैं। भले ही देश में तरक्की के कितनी भी दावे किए जाएं, पर गांवों में करीब 60 से 70 फीसद चिकित्सा विशेषज्ञों की कमी होना अपने आप में कई सवाल पैदा करता है। ऐसे में स्वस्थ भारत खुशहाल भारत कैसे बनेगा। यह एक बड़ा सवाल है। निस्संदेह सरकार हर साल स्वास्थ्य सेवाओं पर करोड़ों रुपए का बजट पेश करती है, लेकिन आज भी देश की स्वास्थ्य सेवाएं सवालों के घेरे में हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाल स्थिति किसी से छिपी नहीं है।

    *भारत में बिना ज्यादा पैसे खर्च किए, अच्छी स्वाथ्य सेवाएं नहीं मिलती हैं:* 

    शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिससे मानव संसाधन को बेहतर बनाया जा सकता है। अमर्त्य सेन का कहना है कि उदारीकरण के लिए चाहे जितने भी क्षेत्र खोल दें, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिन्हें हर हाल में सरकारी नियंत्रण में होना चाहिए। मगर ऐसी सलाह पर कौन ध्यान देता है? कनाडा, डेनमार्क, स्वीडन, नार्वे, जर्मनी, ब्रिटेन, जापान और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में दुनिया की सबसे अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं दी जा रही हैं। मगर भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश में बिना ज्यादा पैसे खर्च किए, अच्छी स्वाथ्य सेवाएं नहीं मिल पाती हैं। जाहिर है, आबादी लगातार बढ़ने के बावजूद आधारभूत ढांचे में सुधार पर जितना ध्यान देना चाहिए, उतना नहीं दिया गया। यह विडंबना तब है, जब देश में इन समस्याओं से निपटने के लिए सभी जरूरी कार्यक्रम और नीतियां मौजूद हैं, लेकिन इन्हें ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है। हालांकि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की घोषणा और क्रियान्वयन से यह आस जगी थी कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की तस्वीर बदल जाएगी, पर ऐसा नहीं हुआ। आश्चर्य है कि भारत अपनी कुल जीडीपी का करीब दो फीसद हिस्सा भी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च नहीं करता, जो 141 करोड़ आबादी वाले देश के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। यह ठीक है कि आयुष्मान भारत योजना जैसे सरकारी कार्यक्रमों ने करोड़ों लोगों को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान की है। फिर भी, स्वास्थ्य क्षेत्र में अभी कई समस्याएं हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने पिछले महीने राज्यसभा में बताया कि स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार का खर्च सकल घरेलू उत्पाद के 1.84 फीसद तक पहुंच गया है। उन्होंने दावा किया कि यह धीरे-धीरे 2.5 फीसद के लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। साफ है, दूसरे विकासशील देशों की बराबरी के लिए हमें काफी कुछ करना होगा। स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च का वैश्विक स्तर छह फीसद माना गया है। छह फीसद का आंकड़ा भारत कब हासिल करेगा, इसका कोई अनुमान नहीं है। साफ है, स्वास्थ्य शायद भारत के राजनीतिक एजंडे के प्राथमिक बिंदुओं में नहीं रहा।

    *अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन भी लगातार जोर देते रहे हैं कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए किसी एकीकृत कार्ययोजना की सख्त जरूरत है:*

    उनका मानना है कि आर्थिक प्रगति के साथ-साथ सामाजिक प्रगति भी उतनी ही जरूरी है। यदि हम चीन और भारत के आर्थिक विकास की तुलना करें, तो चीन के आर्थिक विकास का बहुत बड़ा कारण उसका स्वास्थ्य एवं शिक्षा में निवेश करना रहा है। भारत को भी अपने नागरिकों को विश्व की स्पर्धा में आगे लाने के लिए उन्हें यह उपहार देना होगा।फिक्की के एक सर्वे के मुताबिक 65 फीसद भारतीय बीमार होने पर महंगे इलाज के कारण कर्ज में फंस जाते हैं। इनमें से तीन फीसद तो ऐसे हैं, जो बीमारी पर खर्च की वजह से गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। इतना ही नहीं, बीमारी पर होने वाला 61 फीसद खर्च जेब से दिया जाता है। यानी इसके लिए न तो कोई बीमा होता है और न कोई दूसरी योजना। वहीं हमारा देश हृदय, गुर्दा और श्वास रोगों का घर बनता जा रहा है। मधुमेह के लिए तो उसे विश्व की राजधानी ही कहा जाने लगा है। ‘नेशनल हेल्थ सर्वे’ में यह बात सामने आई है कि 15 से 49 वर्ष के पुरुषों में दिल की बीमारी मौत का प्रमुख कारण बन रही है। यह ठीक है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं और केंद्र सरकार द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च की जाने वाली राशि का बजट में प्रावधान लगातार बढ़ाया जा रहा है, पर स्वास्थ्य क्षेत्र में जितनी उपलब्धता होनी चाहिए, उतनी अभी नहीं हो पाई है। फिर भी, बीते कुछ वर्षों में भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रगति की है। आयुष्मान योजना के अंतर्गत पांच लाख रुपए तक का इलाज मुफ्त उपलब्ध है। सरकार को एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जिसमें स्वास्थ्य सेवाओं तक सबकी आसान पहुंच हो और कम खर्च में इलाज हो सके। दरअसल, किसी भी देश के लिए उसके नागरिकों का स्वास्थ्य एक बड़ी पूंजी होता है। यदि नागरिक स्वस्थ हैं, तो वहां की सरकार देश की सुरक्षा, शिक्षा समेत अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में निवेश और प्रगति पर ध्यान दे सकती है। सही है कि भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी काम हुआ है, पर अभी बहुत काम होना बाकी है।

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