उत्तर प्रदेश बलिया
इनपुट: अमीत कुमार गुप्ता
बलिया उत्तरप्रदेश:----संभोग के दौरान आंखों से आंखों का संपर्क स्त्री को गहराई से जोड़ने और उसे खास महसूस कराने का काम करता है।
सुबह का वक्त था, जब निशा ने बिस्तर से उठते हुए घड़ी पर नजर डाली। सुबह के साढ़े पांच बज चुके थे। काफी देर से जागी हुई होने के बावजूद उसका बिस्तर छोड़ने का मन नहीं था। खिड़की से छनकर आती हल्की रोशनी दिन के आगमन का संकेत दे रही थी। उसने खुद को समझाया और उठकर बाथरूम चली गई। फ्रेश होने के बाद, उसने कमरे को ठीक किया और दैनिक दिनचर्या में व्यस्त हो गई।
कुछ देर बाद दूधवाले की घंटी बजी। निशा ने दूध लिया और किचन में रख दिया। इसी बीच उसके पति, नितिश बाबू, सैर के लिए तैयार हो गए। दोनों के बीच संवाद नाममात्र का ही रह गया था। उनके रिश्ते समय के साथ एक रूटीन में बदल चुके थे, जहां उत्साह, उमंग और नयापन कहीं पीछे छूट चुका था।
नितिश के जाने के बाद, निशा अखबार लेकर बैठ गई। लेकिन उसकी नजरें दीवार पर टंगी उस तस्वीर पर टिक गईं, जिस पर माला चढ़ी हुई थी। यह उनके इकलौते बेटे निलेश की तस्वीर थी। उसकी आंखें नम हो गईं, लेकिन उसने खुद को संभाला और बगीचे में चली गई। वहां उसने सूखी पत्तियां साफ कीं और पौधों को पानी दिया।
इसी दौरान नितिश बाबू सैर से लौट आए। निशा ने चाय बनाने के लिए रसोई में कदम रखा। चाय बनाते हुए उसका मन अतीत की ओर चला गया। निलेश, जो महज अठारह साल का था, पढ़ाई में अव्वल और बेहद होनहार था। लेकिन पिकनिक के दौरान हुए हादसे ने उनकी खुशियों को छीन लिया। गाड़ी के पेड़ से टकराने के बाद अस्पताल में सभी प्रयास व्यर्थ हो गए और निलेश को बचाया नहीं जा सका।
उस हादसे के बाद, निशा और नितिश की जिंदगी में गहरा सन्नाटा छा गया। उन्होंने निलेश के अंग दान कर दिए, लेकिन उसकी अनुपस्थिति का खालीपन हर पल उनके साथ बना रहा। तभी चाय उफनने की आवाज ने निशा को वर्तमान में लौटा दिया। उसने चाय बनाई और नितिश बाबू को लान में ले जाकर दी।
"इतना बड़ा मकान... और अब बस हम दोनों," नितिश बाबू ने उदास स्वर में कहा।
"सोचा था, निलेश की शादी के बाद घर में चहल-पहल होगी। लेकिन अब..." निशा ने भारी मन से जवाब दिया।
"क्यों न ऊपर का हिस्सा किराए पर दे दें?" नितिश बाबू ने सुझाव दिया।
निशा ने आश्चर्य से पूछा, "किराए पर?"
"हां, कम से कम घर में कुछ रौनक तो होगी। और अगर हमें कहीं जाना पड़े, तो मकान खाली नहीं रहेगा।"
तभी गेट पर दस्तक हुई। एक 35 वर्षीय शख्स, सुनील वर्मा, अंदर आता दिखा। उसने नम्रता से नमस्ते करते हुए कहा, "मैं सुनील वर्मा, आपका मकान किराए पर लेना चाहता हूं।" कुछ शर्तों के बाद सुनील ने मकान किराए पर ले लिया और अपनी पत्नी शालू के साथ वहां आकर बस गया। धीरे-धीरे घर में रौनक लौटने लगी।
एक दिन अचानक निशा की तबीयत बिगड़ गई। नितिश शहर से बाहर थे, लेकिन सुनील ने रात-दिन उनकी सेवा की। दवाइयों और बर्फ की पट्टियों से उनकी देखभाल की।
शालू ने सुनील से पूछा, "तुम्हें इनसे इतना लगाव क्यों है? और इस घर को ही क्यों चुना?"
सुनील ने गहरी सांस लेते हुए कहा, "क्योंकि ये मेरी मां हैं।"
शालू हैरान रह गई। सुनील ने बताया कि जब निलेश का एक्सीडेंट हुआ था, तब निशा और नितिश ने उनके अंग दान किए थे। उन्हीं में से एक किडनी उनके शरीर में प्रत्यारोपित हुई थी। उन्होंने कहा, "मैं आज जो कुछ भी हूं, उन्हीं की वजह से हूं। इसलिए मैंने यह मकान किराए पर लिया, ताकि उनकी सेवा कर सकूं।"
यह सुनकर शालू की आंखों में आंसू आ गए। निशा ने अपने बेटे को खोकर एक अनमोल रिश्ता पा लिया था – एक ऐसा बेटा, जो खून से नहीं, बल्कि दिल से जुड़ा हुआ था। यह रिश्ता प्यार, सेवा और सम्मान का एक अनूठा उदाहरण था।
मां और बेटे का यह बंधन खून से नहीं, बल्कि बलिदान और आभार से बना था।